Friday, August 1, 2008

अश्कों की ज़ुबाँ

अश्कों की ज़ुबाँ

निकले थे कहाँ जाने के लिए,
पहुंचे हैं कहाँ मालूम नहीं,
अब अपने भटकते कदमों को,

मंजिल का निशान मालूम नहीं,
बर्बाद वफ़ा का अफसाना हम,

किस से कहें और कैसे कहें,
खामोश हैं लब और दुनिया को,

अश्कों की जुबां मालूम नहीं.

दिल शोला-ए-ग़म से ख़ाक हुआ,
या आग लगी अरमानों में,
क्या चीज़ जली क्यूँ सीने से,

उठा हैं धुंआ मालूम नहीं,
हमने भी कभी इस गुलशन का,

एक ख्वाब-ए-बहारां देखा था,
कब फूल झरे, कब गर्द उडी,
कब आई खिजां मालूम नहीं.

...रवि
http://mere-khwabon-me।blogspot.com/

5 comments:

नीरज गोस्वामी said...

रवि भाई
बहुत खूब..बहुत रवानी है आप के लेखन में...वाह.
नीरज

अमिताभ मीत said...

बहुत खूब !! ये गाना किस फ़िल्म का है भाई ?? मेरे पास है तो सही .... फ़िल्म का नाम याद नहीं आता ... ढूंढ के पोस्ट करता हूँ ..... सुनने में भी मज़ा आएगा. वैसे अगर मुझे ठीक ठीक याद है तो साहिर ने लिखा है इसे .... खैर details गाने के साथ पोस्ट करूंगा. बहरहाल, पढ़वाने का शुक्रिया.

रंजना said...

बहुत ही सुंदर भाव शब्द और शैली.एक दम सुगठित प्रवाहमयी..बहुत ही अच्छी लगी आपकी रचना.

शोभा said...

बहुत सुन्दर ।

Palak.p said...

dastanay ishq ka ek hi fasana hai...
kahi per tadpan kahi per asu ki dhaar hai.. ...
kaise kahay hum ki ishq ne hame nakam kiya ..
nakma is pyar ko badnami ka naqab nahi pehna saktay...

Palak